Wednesday 4 January 2012

भोजपुरी फिल्मों को राजकीय समर्थन की जरुरत है : आलोक दुबे




भोजपुरी सिनेमा उद्योग, यह शब्द आज अजीब नहीं लगता किन्तु ज्यादा समय पहले नहीं, कुछ ह़ी साल पहले तक अगर यह शब्द बोला जाता था तो लोग हसने लगते थे। कारण ? कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि भोजपुरी भाषा में इतनी फिल्मे भी बनने लगेंगी। किन्तु समय की माग और इस इस भाषा की ताकत को समझते हुए कुछ लोग इसमे लगे रहे और उस वक़्त प्रादेशिक सरकार के सहयोग से एक फिल्म ऐसी आई जिसने सम्पूर्ण बिहार और उत्तर प्रदेश के साथ साथ पंजाब, मुंबई, दिल्ली में बिज़नस का एक नया कीर्तिमान कायम किया। फिल्म का नाम था "ससुरा बड़ा पैसेवाला"। इस फिल्म की सफलता में भोजपुरी भाषा की अपनी पकड़ के साथ साथ मुख्य सहयोग प्रदेश सरकार का भी था जिसने फिल्म को मनोरंजन कर से मुक्त किया। ससुरा बड़ा पैसेवाला ने भोजपुरी फिल्म की सफलता की जो शुरुआत की उसे आगे दरोगा बाबु आई लव यु, पंडितजी बताई बिआह कब होई जैसी फिल्मो ने आगे बढाया और यह सिद्ध किया की भोजपुरी फिल्मो का एक बड़ा वर्ग है, जिससे प्रभावित हो हिंदी फिल्म उद्योग, जो की खुद उस वक़्त एक बेहद त्रासदी वाले समय से गुजर रहा था, का ध्यान भोजपुरी फिल्मो पर गया और फलस्वरूप भोजपुरी फिल्मो के निर्माण में एक अभूतपूर्व तेजी आई और भोजपुरी फिल्म एक इंडस्ट्री के रूप में पहचान बनाने में सफल रही।
आज भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में काम, पैसा, नाम सभी है बस उसे संभाल के ले चलने की जरूरत है, जिसका प्रयास इस इंडस्ट्री के लोग कर रहे है किन्तु एक बात जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है बिहार और उत्तर प्रदेश की सरकारों का इस भोजपुरी फिल्मो के प्रति सकारात्मक सोच की। जरा सोचे, आज पुरे भारत में मुख्यतया ६ स्थान है जहा फिल्मो के निर्माण की पूरी सुविधा उपलब्ध है। जिसमे ४ दक्षिण में, १ मुंबई और १ कोलकाता में है। भोजपुरी के मूल स्थानों में फिल्म निर्माण सम्बंधित सुविधा का घोर अकाल है। अभी तक मुंबई ह़ी हिंदी और भोजपुरी फिल्म निर्माण की जगह बनी हुई है और जहा हम भोजपुरी भाषियों के साथ कैसा सलूक किया गया यह बात उठाने का यहाँ कोई महत्व नहीं है लेकिन क्या इस हादसे से हमें कोई भी सीख लेने की जरुरत भी नहीं है ? यह एक बड़ा ह़ी ज्वलंत प्रश्न है जिसका जवाब सबके लिए बहुत ह़ी जरुरी है।
यहाँ हमें राजकीय मदद और राजकीय समर्थन की आवश्यकता है। उत्तर प्रदेश में पुराने सिनेमा हॉल को बंद कर उसमे कुछ दूसरी गतिविधि पे रोक है। कारण ? सरकार यह समझती है की उससे सिनेमा हॉल में लगे कर्मचारी रोजगार विहीन हो जायेंगे और चूकि कमजोर आयवर्ग के लोगो के मनोरंजन का एकमात्र सस्ता साधन सिनेमा ह़ी है, वो उस मनोरंजन से भी वंचित होंगे। यहाँ हमें सरकार को यह समझाने की कोशिश करनी है कि वर्तमान में नई फिल्मो के निर्माण में काफी कमी आई है जिसकी वजह से फिल्मो के आभाव में सिनेमा हॉल तो बंद होते ह़ी जा रहे भले ह़ी उसमे कोई दूसरा काम नहीं हो पा रहा। किसी पर प्रतिबन्ध लगा के जबरदस्ती सिनेमा चलवाने से अच्छा है कि ऐसी हालात पैदा किये जाए की इस व्यवसाय से पलायन की बात छोड़ नए लोग भी इसे करने को उद्द्यत हो। यह काम केवल सरकार ह़ी कर सकती और कोई नहीं। कल्पना कीजिये कि कल हमारा एक ऐसा क्षेत्र पैदा होता है जहाँ कि फिल्म निर्माण से सम्बंधित सारी सुविधा मौजूद हो तो इस उद्योग में कितना विकास होगा, लोगो को रोजगार मिलेगा, पर्यटन को पढ़वा मिलेगा, युवा कलाकरों को, जो अपनी कला का प्रदर्शन नहीं कर पाते है उन्हें इसका मौका मिलेगा और फलस्वरूप बंद होते सिनेमा की जगह नए नए सिनेमा का निर्माण होगा। मुझे तो इन सब बातों की कल्पना करते ह़ी जोश आ रहा है। तो आयें, इस मुहीम में अपनी छाप छोडें और आग्रह करें प्रादेशिक सरकारों से कि सिर्फ अपने टार्गेट कि ना सोच कर के एक सुनहरे भविष्य कि नीव रखें...
मौत से पहले दवा की जरुरत है, दवा कितनी ह़ी अच्छी हो अगर मरीज़ के मरने के बाद दी जाय तो उसका कोई असर नहीं होता और अगर मरीज को समय से दवा मुहैया करने की कोशिश की जाय तो वास्तव में एक सुनहरा भविष्य आगे हमारे स्वागत में खड़ा है।
(श्री आलोक दुबे पिछले ३० सालों से फिल्म एक्ज़िबिटर हैं. आनंद मंदिर, वाराणसी के संचालक के तौर पर पिछले ७ सालों से लगातार सिर्फ भोजपुरी फिल्मों का प्रदर्शन कर रहे हैं)

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