Monday 23 January 2012

भोजपुरी सिनेमाः मिटती माटी की महक

ससुरा बड़ा पइसा वाला से शुरु होने वाले तीसरे दौर की भोजपुरी फिल्मों में पात्रों की भाषा सिर्फ भोजपुरी है, बाकी हर लिहाज से वे मुम्बईया फिल्मों के ही करीब हैं। 21वीं सदी में भोजपुरी फिल्मों के पुर्नरूत्थान के मूल में मनोज तिवारी, निरहुआ जैसे लोक गायकों की भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में अपने द्विअर्थी गानों से पहले से मिली लोकप्रियता है।
मनोज तिवारी और निरहुआ का दौर : 2005 में दक्षिण कोरिया में अध्ययन अवकाश के दौरान वहां कार्यरत भोजपुरिहों के सौजन्य से मुझे मनोज तिवारी और निरहुआ के वीडियो एलबम देखने को मिले थे तब मुझे महसूस हुआ था कि भोजपुरी क्षेत्र के हम जैसे विद्वान (!) जिन लोगों को गंभीरता से नहीं लेते और अभी भी मोती बीए, बलेसर और शारदा सिन्हा को याद करते हैं; उनकी गैर जानकारी में ही भोजपुरी में मनोज तिवारी, निरहुआ और रवि किशन जैसे नये स्टार, जो मुम्बईया लटकों-झटकों से लैस हैं न सिर्फ आ चुके हैं बल्कि सफलता के नये आयाम रच रहे हैं।
बाजारवाद के दौर की आंचलिकत : इसका कारण यह है कि वैश्वीकरण के चलते भोजपुरी क्षेत्रों में भी इन मूल्यों की स्वीकार्यता पैदा हुई है। यह बाजारवाद का दौर है जो हर बिकने वाली वस्तु को तवज्जो देगा। यदि भोजपुरी की अश्लीलता और द्विअर्थीपन बिकता है तो है इसकी सरलता, संवेदनशीलता और भावनात्मक गहराई को चाहने वाले लोग इस देश में ही नहीं विदेशों में बड़ी संख्या में हैं इसलिए उम्मीद बनती है कि इस बड़े वर्ग की मांग पूरी करने के लिए भी भोजपुरिये आगे आयेंगे। दरअसल प्रादेशिक भाषाओं में सिनेमा इस सोच की उपज है कि वह अपनी जमीन से जुड़कर ही अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकता है। इस दिशा में सक्रिय होने वाले लोग जान चुके थे मुंबई में बनने वाला सिनेमा अपने देश के जनजीवन की सच्चाइयों से कटा हुआ है, इसलिए इन फिल्मों के निर्माण में योगदान देना निरर्थक जीवन जीने जैसा है। लेकिन भोजपुरी खुद को हिन्दी सिनेमा से काट नहीं सकी।
भोजपुरी सिनेमा को ऐसे लोगों ने खड़ा किया जो अपनी रोजी-रोजगार से लेकर तकनीकी और मानव संसाधन तक के लिए हिन्दी फिल्म उद्योग की अधोरचना पर ही निर्भर हैं। उन्हें हिन्दी सिनेमा के प्रतिनिधित्व मिल गया था, लेकिन उसमें उनकी मातृभाषा का या तो प्रतिनिधित्व नहीं था या फिर फूहड़ या बनावटी प्रतिनिधित्व था। और उनको यह यकीन हो गया था कि आगे भी कुछ बेहतर नहीं होने वाला। तभी तो विमल राय जैसे व्यक्ति के आग्रह पर भी नजीर हुसैन ने गंगा मैया तोहे... की पटकथा उन्हें नहीं सौंपी थी।
भोजपुरी सिनेमा का पूरा संघर्ष अपनी भाषा और भूगोल को चिन्हित करना रहा है। और वह ऐसा करने में कुछ हद तक सफल भी रहा है। ऐतिहासिक विकासों का सार यह रहा है कि पहला चरण दूसरे की दिशा तय करता है और ये दोनों मिलकर तीसरे को और इस तरह सिलसिला चलता रहता है। लेकिन भोजपुरी सिनेमा एक खास तरह की धारा में ठहर गया है। इससे आगे बढ़ने के उसे आत्मावलोकन और आत्मविश्लेषण की प्रक्रिया से गुजरना होगा। उसे खुद को हिन्दी के प्रभाव से मुक्त करना होगा। कथा उठाने और कहने के लिए तो उसे अपनी जमीन पर ही उतरना होगा। और नये तनावों तथा चुनौतियों को अभिव्यक्त करने के लिए नये मुहावरे गढ़ने होंगे।
अभी बाकी हैं चुनौतियां : रोना यह है कि अन्य भाषाओं को जो समर्थन और सहयोग राज्य व्यवस्थाओं और उस भाषा के बौद्धिकों व कलाविदों से मिला है वह भोजपुरी सिनेमा को नहीं मिला है। नयी शताब्दी में उत्तर प्रदेश फिल्म विकास निगम ने कुछ पहलकदमी की है लेकिन उसके परिणाम आने बाकी हैं। परन्तु क्या सत्ता का समर्थन उसके मर्ज का इलाज है ? भोजपुरी सिनेमा के सामने अहम चुनौती इस बात की है कि क्या वह दूसरी भाषाओं के सिनेमा की तरह अपनी विशिष्ट पहचान दर्ज करा सकेगा ? बाजार व्यवस्था में दर्शक खरीददार की तरह हैं। भोजपुरिहे यदि अपनी माटी की महक वाली फिल्मों की मांग करेंगे तो देर-सबेर वह भी बनेगीं पर इसके लिए भोजपुरिहों को अपने सिनेमा में रूचि लेकर उसके परिष्कार हेतु विमर्श को तीखा और धारदार करना होगा।

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